देहरादून। उत्तराखंड के मतदाताओं में अपने मताधिकार के प्रति उतनी रुचि नहीं है, जितनी दूसरे कई अन्य राज्यों में दिखाई देती है। इसका अंदाजा इस तथ्य से लग जाता है कि राज्य बनने के बाद अब तक हुए चार लोकसभा चुनावों में हर चुनाव में औसतन 28 लाख मतदाता मतदान करने से कन्नी काट जाते हैं।
चुनाव-दर-चुनाव बढ़ रहे मतदान प्रतिशत पर चाहे हम कितना इतराएं, लेकिन सच्चाई यही है कि देश के 36 राज्यों व केंद्रशासित राज्यों में हमारी रैंकिंग मतदान प्रतिशत के मामले में 31वें स्थान पर है। यूपी (59.21%), बिहार (57.33%) महाराष्ट्र (61.02%), नई दिल्ली (60.6%) उत्तराखंड से पीछे हैं। समान भौगोलिक परिस्थितियों वाले पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश और उत्तर-पूर्व के कई हिमालयी राज्य मतदान प्रतिशत के मामले में हमसे काफी आगे हैं।
लेकिन, उत्तराखंड अभी मतदान की राष्ट्रीय दर को भी नहीं छू पाया है। ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव में 75 प्रतिशत मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक लाने का लक्ष्य बेहद चुनौतीपूर्ण माना जा रहा है। चुनाव आयोग ने इसके लिए पूरी ताकत झोंक रखी है, लेकिन जानकारों का मानना है कि केवल आयोग की कोशिशें से मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए काफी नहीं होंगी। इसके लिए उन कारणों की भी पड़ताल होनी जरूरी है, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कम मतदान की वजह बनते हैं।
समान भौगोलिक हालात और क्षेत्रफल के बावजूद मतदान प्रतिशत के मामले में उत्तराखंड पड़ोसी राज्य हिमाचल से पीछे है। 2019 लोस चुनाव में हिमाचल प्रदेश का मतदान प्रतिशत 72.42 था, जो राष्ट्रीय औसत 67.40 प्रतिशत से काफी आगे है। उत्तर-पूर्व के राज्य भी मतदान प्रतिशत के मामले में उत्तराखंड से काफी आगे हैं। 2019 के चुनाव में अरुणाचल प्रदेश में 82 प्रतिशत, मणिपुर में 82.69 प्रतिशत, मेघालय में 71.43 प्रतिशत नागालैंड में 83 प्रतिशत, सिक्किम में 81.41 प्रतिशत वोट पड़े थे। ऐसे में भौगोलिक परिस्थितियों को कम मतदान के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
अलबत्ता पिछले चार लोस चुनाव का सिलसिलेवार विश्लेषण करने पर यह तथ्य जरूर सामने आ रहा है कि 20 वर्षों की इस चुनावी यात्रा में मतदान केंद्रों तक पहुंचने वाले मतदाताओं में 14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। राज्य गठन के बाद हुए पहले लोकसभा चुनाव में 55.62 लाख से अधिक मतदाताओं में से 38.99 लाख मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। यानी 51.93 प्रतिशत मतदाता मतदान के दिन अपने घरों से बाहर नहीं निकले, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत 48.07 प्रतिशत से बढ़कर 61.88 प्रतिशत तक पहुंच गया। यानी 20 वर्ष में मतदान के दिन घर से बाहर नहीं निकलने वाले मतदाताओं की संख्या घटकर 38.12 प्रतिशत रह गई।
तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि अभी उत्तराखंड राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है। बेशक राज्य और राष्ट्रीय मतदान प्रतिशत के अंतर धीरे-धीरे कम हो रहा है। 2004 के लोस चुनाव में देश में 58.07 प्रतिशत मतदान हुआ। इसकी तुलना में उत्तराखंड में 48.07 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले। राष्ट्रीय औसत की तुलना में मतदान का अंतर 10 फीसदी का रहा, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव तक यह अंतर आधा रह गया। 2019 में देश में 67.40 प्रतिशत मतदान हुआ, जबकि उत्तराखंड में 61.88 प्रतिशत मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया। यानी मतदान का अंतर 5.52 प्रतिशत तक रह गया। अब चुनाव प्रबंधन जुटी मशीनरी के सामने राष्ट्रीय औसत के इस अंतर को लांघने की चुनौती है।
..तो इसलिए कम होता है मतदान (जानकारों की कम मतदान को लेकर अलग-अलग राय है।)
1. पलायन : ज्यादातर का मानना है कि हिमाचल और उत्तर-पूर्वी राज्यों की तुलना में उत्तराखंड में पलायन की दर अधिक है। राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोग रोजगार और नौकरी के लिए अपने क्षेत्रों से बाहर हैं। राज्य से बाहर पलायन कर चुके लोगों ने अपने नाम मतदाता सूचियों में दर्ज तो करा लिए, लेकिन उनमें से बड़ी संख्या में लोग मतदान करने नहीं आते।
2. जनप्रतिनिधियों का खोता भरोसा : जानकारों का मानना है कि चुने जाने के बाद जनप्रतिनिधियों की जनता के बीच गैरमौजूदगी, जनसमस्याओं के प्रति उदासीनता के कारण उनके प्रति अविश्वास भी एक प्रमुख वजह है।
3. स्थानीय मुद्दों पर बात नहीं : उत्तराखंड में भाजपा और कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय दलों के बीच ही सीधा मुकाबला होता रहा है। ये दोनों दल लोस चुनाव में स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लड़ते हैं। चुनाव में स्थानीय मुद्दे नदारद रहते हैं, इसलिए लोगों की चुनाव में उतनी दिलचस्पी नहीं होती। इसके विपरीत हिमाचल और उत्तर पूर्वी राज्यों में स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा बात होती है। इसकी तस्दीक विधानसभा का चुनाव मतदान प्रतिशत से हो जाती है, जो लोस की तुलना में अधिक होता रहा है।