देहरादून। मेरा अनुभव है कि 23 वर्ष बाद भी हम राज्य निर्माण की मूल अवधारणा की बुनियाद भी नहीं रख पाए। पहाड़ का पानी पहाड़ के काम आए। जल, जंगल और जमीन पर हमारा अधिकार हो, यह इंतजार अभी खत्म नहीं हुआ है। हमारी दशा चिंताजनक है और दिशा स्पष्ट नहीं है। निसंदेह हमें इस बात पर गुमान है कि हम दुनिया के अपनी तरह के अहिंसक और सफल जनांदोलन के साक्षी रहे।
हमने बताया कि केवल हिंसक युद्ध ही मांगों और मसलों के समाधान नहीं है। लाख बरबता के बावजूद अहिंसा के मार्ग से जायज मांगें मनवाई जा सकती हैं। हमारे यहां हर घर से औसतन एक व्यक्ति सेना या अर्द्धसैनिक बल में है। हम मार्शल कौम हैं फिर भी हमने अहिंसा का ही रास्ता अपनाया।
पहाड़ की पहाड़ जैसी समस्याओं के समाधान, रोजगार, बेहतर शासन-प्रशासन और अपनी अलग पहचान के लिए ही हमारे लोगों ने शहादतें दीं, मगर अभी तक इस यात्रा में पहाड़ का जनमानस खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। हमारा हेप्पीनेस इंडेक्स नीचे जा रहा है। अविभाजित उत्तरप्रदेश में लखनऊ से लिए गए फैसले सुदूर पहाड़ में धरातल पर उतर जाते थे।
लेकिन, अपना राज्य बनने के बाद ऐसे ही फैसले देहरादून से लागू नहीं हो पा रहे हैं। गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों में रौनक रहती थी। काम होते थे।प्रशासनिक मशीनरी वहीं से चलती थी। आज दोनों कमीशनरी सफेद हाथी बनकर रह गई हैं। पूर्ववर्ती उत्तरप्रदेश की तुलना में उत्तराखंड में भ्रष्टाचार भी कई गुना बढ़ा है।
राज्य का युवा रोजगार के लिए केवल सरकारी नौकरियों पर निर्भर है। हमने परंपरागत कुटीर उद्योग, बागवानी, पशुपालन आदि की घोर उपेक्षा की है, जबकि हम पर्यावरण मित्र उद्योग लगाकर रोजगार भी दे सकते थे। हम नीति-नियोजन बनाने में नाकाम हो गए। सीमांत क्षेत्रों में नागरिक ही पहली पंक्ति के सैनिक होते हैं, जो सेना को सूचना देने, रास्ता बताने और अन्य महत्वपूर्ण कार्य में सहयोग देते हैं।
इन गांवों से लोग पलायन को मजबूर हों तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से चिंता का विषय भी है। पलायन हमारी सबसे बड़ी चिंता है। हमें लोगों को गांवों में बनाए रखने की योजना पर गंभीरता से काम करना होगा। हिमालयी राज्य के सामने विकास के साथ पर्यावरण संतुलन भी एक बड़ी चुनौती है। हमें बड़ी परियोजनाओं और निर्माण में पर्यावरणीय मानकों की चिंता करनी होगी।
प्रकृति ने उत्तराखंड को भरपूर दिया है, पर हमने उन क्षेत्रों की उपेक्षा की जो हमारी आर्थिकी को सुदृढ़ कर सकते थे। पर्यटन, ऊर्जा, पशुपालन, बागवानी, जड़ी बूटी, उद्यानिकी, सूचना प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग की संभावनाओं का हम दोहन नहीं कर सके, जबकि ये सारे क्षेत्र राज्य के विकास की काया पलट सकते हैं।
हम दुनिया में बढ़ रही जैविक उत्पादों की मांग की पूर्ति करने में सक्षम थे, लेकिन खास नहीं हो पाया। आमदनी के लिए हमारी सरकारों की निर्भरता आबकारी और खनन पर केंद्रित हो गई। इसमें भी भ्रष्टाचार और अनियमितता का बोलबाला व पारदर्शिता का अभाव दिखाई दिया। हमें सोचना होगा कि सेवानिवृत्त हो चुके पूर्व सैनिकों के पास अनुभव और प्रशिक्षण का भंडार है। उनके सहयोग से हम तेजी से विकास पथ पर बढ़ सकते हैं।
– रविंद्र जुगरान, पूर्व अध्यक्ष, राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद