
देहरादून। उत्तराखंड भूस्खलन और प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से बेहद संवेदनशील राज्य है। यहां की पर्वतीय भू-संरचना, कमजोर चट्टानें, तेज ढलान और लगातार बदलता मौसम बार-बार बड़े हादसों को जन्म देते रहे हैं। पहाड़ों के धंसने और चट्टानों के खिसकने से नदियाँ अक्सर बाधित हो जाती हैं और अचानक वहां झीलें बन जाती हैं। ये झीलें अस्थायी होती हैं, लेकिन जब टूटती हैं तो विनाशकारी बाढ़ का रूप ले लेती हैं। आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिकों के नवीनतम शोध में यह गंभीर और चिंताजनक सच एक बार फिर सामने आया है।
शोध रिपोर्ट में खतरनाक खुलासे
आईआईटी रुड़की के वैज्ञानिक श्रीकृष्ण शिवा सुब्रहमण्यम और शिवानी जोशी ने उत्तराखंड में भूस्खलन से बने प्राकृतिक बांधों और झीलों का गहन अध्ययन किया। उनकी रिपोर्ट इसी साल जनवरी में एक अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 1857 से 2018 तक कम से कम 23 भूस्खलन झीलें बनीं और लगभग सभी टूटकर आपदा का कारण बनीं।
भूस्खलन झील का खतरा
वैज्ञानिकों ने बताया कि जब किसी नदी की धारा भूस्खलन के कारण रुक जाती है तो वहां पानी जमा होकर झील का रूप ले लेता है। यह झील जब प्राकृतिक दबाव को सहन नहीं कर पाती तो अचानक टूट जाती है और नीचे के इलाकों में भारी तबाही मचाती है। हाल के वर्षों में स्यानाचट्टी और धराली जैसे स्थानों पर इसके प्रत्यक्ष उदाहरण देखे गए।
ऐतिहासिक घटनाएँ
उत्तराखंड के इतिहास में 1893 में अलकनंदा नदी पर बना गोहना ताल सबसे बड़ा उदाहरण है। यह झील 1970 में टूटने के बाद हरिद्वार तक बाढ़ का कारण बनी। इससे पहले 1857 में मंदाकिनी नदी, 1868 और 1930 में अलकनंदा, 1951 में पूर्वी नायर और 1957 में धौलीगंगा नदी पर भी ऐसे भूस्खलन बांध बने थे।
रिपोर्ट में दर्ज है कि वर्ष 1998 में मंदाकिनी और काली नदी पर बने झीलों ने केवल घंटों या कुछ दिनों में टूटकर तबाही मचाई।
सबसे संवेदनशील क्षेत्र
शोधकर्ताओं के अनुसार, अलकनंदा घाटी, धौलीगंगा और चमोली जिला सबसे अधिक संवेदनशील हैं। यहां की संकरी घाटियाँ, भूकंपीय गतिविधि और बार-बार होने वाली भारी बारिश हालात को और भी खतरनाक बनाती है। चमोली, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी जिले बार-बार ऐसी आपदाओं से प्रभावित होते रहे हैं।
मानसून का सबसे बड़ा खतरा
रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि जुलाई, अगस्त और सितंबर यानी मानसून के महीनों में भूस्खलन झील बनने की सबसे अधिक घटनाएं हुई हैं। आंकड़ों के अनुसार, 28 प्रतिशत घटनाएं मलबे के भारी बहाव से, 24 प्रतिशत पत्थर गिरने से और 20 प्रतिशत घटनाएं मलबे के खिसकने से हुई हैं।
प्राचीन झीलों की खोज
वैज्ञानिकों ने अलकनंदा और धौलीगंगा घाटियों में 5,000 से 14,000 साल पहले बनी कई झीलों की पहचान की है। इनकी जानकारी भू-आकृतिक चिह्नों, पराग विश्लेषण, चुंबकीय परीक्षणों और ऑप्टिकल स्टिम्युलेटेड ल्यूमिनेसेंस (OSL) तकनीक से मिली है। यह दर्शाता है कि उत्तराखंड के पहाड़ लंबे समय से इस तरह की प्राकृतिक प्रक्रियाओं का सामना करते रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन और बढ़ता खतरा
रिपोर्ट में चेताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण अब बारिश की तीव्रता और बादल फटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इससे भूस्खलन की घटनाएँ और भी खतरनाक रूप ले रही हैं। साथ ही सड़कों, सुरंगों और जलविद्युत परियोजनाओं पर भी गंभीर खतरा मंडरा रहा है।
1857 से 2018 तक दर्ज घटनाओं की सूची
- 1857, मंदाकिनी – झील बनी, 3 दिन में टूटी
- 1893, अलकनंदा (गोहना ताल) – झील बनी, 1970 में टूटी, तबाही हरिद्वार तक
- 1957, धौलीगंगा – हिमस्खलन से बनी झील, बाद में मलबे से भर गई
- 1968, ऋषिगंगा – झील टूटी और 1970 में बड़ा नुकसान हुआ
- 1998, काली नदी – झील केवल 12 घंटे में टूटी
- 2018, बावरा गाड़ (पिंडर सहायक) – झील बनी, अब भी बांधित
- 2018, सोंग नदी – चट्टान गिरने से झील बनी, 7 घंटे में टूटी
(कुल 23 घटनाएँ, जिनमें अधिकांश मानसून में दर्ज हुईं)
आगे की चुनौती
वैज्ञानिकों का कहना है कि राज्य को भविष्य में ऐसे खतरों से बचाने के लिए लगातार निगरानी, रियल टाइम डेटा और आपदा प्रबंधन प्रणाली को मजबूत करना बेहद जरूरी है। साथ ही निर्माण परियोजनाओं की योजना बनाते समय इन प्राकृतिक खतरों को ध्यान में रखना चाहिए।