
रुड़की | उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं का खतरा तेजी से बढ़ता जा रहा है। राज्य के करीब 3000 गांव ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों में बसे हैं, जहां बादल फटने (Cloudburst) और अतिवृष्टि (Extreme Rainfall) जैसी घटनाओं की आशंका कहीं ज्यादा है। पिछले दस वर्षों में 57 बार ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें से 38 घटनाएं अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुई हैं।
यह खुलासा राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (National Institute of Hydrology – NIH) द्वारा किए गए एक विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन में हुआ है, जो ‘नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग द हिमालयन इकोसिस्टम (NMSHE)’ के अंतर्गत किया गया।
बादल फटने की घटनाओं के पीछे छिपा विज्ञान
कहां होती हैं ये घटनाएं सबसे ज़्यादा?
शोध में बताया गया है कि उत्तराखंड में 1000 से 2000 मीटर ऊंचाई (elevation band) के बीच बसे गांवों में यह खतरा सबसे अधिक है। यही वह क्षेत्र है, जहां पिछले दशक में 80% बादल फटने की घटनाएं दर्ज की गईं।
इन घटनाओं का मुख्य कारण माना गया है “रीजनल लॉकिंग सिस्टम” – एक विशेष प्रकार की मौसमीय संरचना जो कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में बनती है। यह प्रणाली ऐसे क्षेत्रों में विकसित होती है, जहां स्थानीय सतही तापमान (18°C से 28°C के बीच) और घाटी की भौगोलिक आकृति मिलकर बादलों को रोककर उन्हें तीव्र वर्षा में बदल देती है।
खास रिपोर्ट: कौन से जिले और ब्लॉक हैं सबसे ज़्यादा प्रभावित?
शोध में वर्ष 2010 से 2020 के बीच की घटनाओं का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन में छह ज़िलों में सबसे अधिक आपदाएं दर्ज की गईं, जिनमें से चमोली, टिहरी, रुद्रप्रयाग और उत्तरकाशी सबसे संवेदनशील पाए गए हैं। यहां के कई ब्लॉकों – जैसे जोशीमठ, भिलंगाना, भटवारी, उखीमठ, दशोली, देवप्रयाग, जखोली, थराली और नारायणबगड़ – में यह घटनाएं अक्सर मानसून के समय घातक साबित हुई हैं।
80% घटनाएं दोपहर बाद, गर्म घाटियों में
वैज्ञानिकों का कहना है कि घाटियों में दोपहर के समय गर्मी और वाष्प का स्तर काफी बढ़ जाता है। खासकर जुलाई और अगस्त में, जब मानसून चरम पर होता है, उस समय इन घाटियों में स्थित दीवारनुमा पहाड़ियां आपस में गर्मी को रिफ्लेक्ट करती हैं, जिससे सतही तापमान और बढ़ जाता है।
इसी वजह से दोपहर बाद मौसम तेजी से बदलता है और स्थानीय बादल रुककर भारी वर्षा करते हैं। इन घटनाओं को ही तकनीकी भाषा में “Cloudburst Events” कहा जाता है, जो कई बार महज 10 से 20 मिनट में भारी तबाही ला सकती हैं।
क्यों खतरनाक है ‘रीजनल लॉकिंग सिस्टम’?
‘रीजनल लॉकिंग सिस्टम’ का सीधा अर्थ है – एक ऐसा स्थानीय मौसमीय तंत्र जो बादलों को बहने नहीं देता और उन्हें एक ही स्थान पर गहन वर्षा के लिए मजबूर करता है।
- यह प्रणाली स्थानीय टोपोग्राफी (घाटी की आकृति) और
- 18°C से 28°C के सतही तापमान वाले क्षेत्रों में विकसित होती है।
शोध में यह स्पष्ट किया गया है कि 3°C से 17°C वाले ठंडे क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाएं 20% ही दर्ज हुई हैं, जबकि गर्म घाटियों में 80%।
विज्ञान और चेतावनी: क्या कहते हैं शोधकर्ता?
इस अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों – डॉ. एमके गोयल, डॉ. मनोहर अरोड़ा, डॉ. पीके मिश्रा, डॉ. संजय जैन और डॉ. ए.के. लोहानी – ने चेताया है कि यदि समय रहते उपाय नहीं किए गए, तो इन गांवों में रहने वाले लाखों लोग भविष्य में निरंतर जोखिम के साये में रहेंगे।
इन वैज्ञानिकों ने सरकार से आग्रह किया है कि:
- जोखिम वाले गांवों की सूची बनाकर वहां पूर्व चेतावनी प्रणाली (Early Warning System) स्थापित की जाए,
- गांवों का पुनर्वास, जहां संभव हो, उच्च भूमि पर किया जाए,
- और स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षण दिया जाए।
सरकार की चुनौतियां और ज़िम्मेदारियां
उत्तराखंड सरकार के सामने अब यह स्पष्ट हो गया है कि सिर्फ आपदा आने पर राहत देना काफी नहीं है। आपदा पूर्व रणनीति, जमीन स्तर पर निगरानी, और विज्ञान आधारित निर्णय लेना ही अब भविष्य के लिए आवश्यक है।
मुख्यमंत्री ने हाल ही में कहा था कि राज्य सरकार “हिमालयन इकोसिस्टम के अनुसार विकास” पर काम कर रही है, लेकिन इस रिपोर्ट के आने के बाद उन योजनाओं की पुनर्समीक्षा और त्वरित क्रियान्वयन की आवश्यकता और बढ़ गई है।
निष्कर्ष: हिमालयी सौंदर्य के पीछे छिपा खतरा
उत्तराखंड जितना सुंदर है, उतना ही संवेदनशील भी। बढ़ते तापमान, भौगोलिक संरचना और मानव हस्तक्षेप ने इस राज्य को एक प्राकृतिक प्रयोगशाला बना दिया है, जहां मौसम विज्ञान की छोटी सी चूक भी भारी नुकसान का कारण बन सकती है।
यदि हम आज नहीं चेते, तो कल ये 3000 गांव केवल आंकड़े बनकर रह जाएंगे।