देहरादून। धर्म की शिक्षा देने के लिए खोले गए मदरसों में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर स्कूली शिक्षा किस आधार पर दी जा रही है, जबकि अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा के अधिकार अधिनियम (आरटीई एक्ट) के प्रावधान मदरसा या वैदिक पाठशाला पर लागू नहीं होते।
एक्ट के तहत उन्हें शिक्षण संस्थान की तरह संचालित नहीं किया जा सकता। फिर शिक्षा विभाग किस आधार पर मदरसों को स्कूल की मान्यता दे रहा है। इस पर भ्रम बढ़ता जा रहा है। इस बीच मदरसों से लगातार विवाद सामने आने पर राज्य बाल आयोग ने शिक्षा विभाग के महानिदेशक को पत्र लिखकर स्थिति स्पष्ट करने के लिए कहा है।
आयोग की अध्यक्ष डॉ. गीता खन्ना ने कहा कि उत्तराखंड के मदरसों में बच्चों की देखरेख में कमी, उनकी शिक्षा की उपेक्षा और मासूमों से दुराचार के लगातार मामले सामने आ रहे हैं। ऐसे में मदरसों की लेकर वास्तुस्थिति का अंतर स्पष्ट करना जरूरी है।
इस सिलसिले में शिक्षा महानिदेशक को लिखे पत्र में कहा गया है कि आरटीई एक्ट के तहत विभिन्न प्रकार के प्रकरण और उनके निस्तारण में उपयुक्त कार्यवाही के लिए अधिकारी स्तर पर 15 दिन में एक बैठक की जाए। साथ ही आयोग के सामने 5 सितंबर तक मदरसों की शैक्षणिक वास्तुस्थिति स्पष्ट करें।
डॉ. खन्ना ने पत्र में लिखा है कि आरटीआई एक्ट की धारा-एक की उपधारा-पांच में मदरसा और वैदिक पाठशाला शिक्षण संस्थान की तरह संचालित नहीं हो सकते। वहीं शिक्षा विभाग द्वारा मान्यता प्राप्त मदरसों में एनसीआरटी के पाठ्यक्रम पढ़ाए जा रहे हैं, इससे भ्रम की स्थिति है।
आयोग ने एक और पत्र लिखा है कि कुछ मदरसा में सिर्फ इस्लाम की शिक्षा दी जा रही है, उन मदरसों में दूसरे राज्यों के बच्चे भी स्थाई तौर पर रहते हैं। सवाल यह है कि स्थाई तौर पर रहने वाले बच्चों के शिक्षा के अधिकार की जिम्मेदारी किसकी होगी। यदि वह शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं तो उनके लिए क्या प्रावधान हैं।