नैतिकता और पवित्रता के नाम पर देश में महिलाओं-युवतियों को ही आखिर इम्तिहान क्यों देना पड़ता है। सारी शुचिता-पवित्रता की जिम्मेदारी का ठीकरा महिलाओं पर ही क्यों फूटता है। पुरुष चाहे कुछ भी करे, उसे महिलाओं के सामने किसी तरह की परीक्षा देने की जरूरत नहीं पड़ती। सदियों से चला आ रहा यह लैंगिक भेदभाव आखिर कब मिटेगा? कब तक महिलाएं कभी धर्म के नाम पर तो कभी रस्मोरिवाजों के नाम पर बलिवेदी पर चढ़ती रहेंगी? ये ऐसे सवाल हैं जो आजादी के 75वें साल में अमृत महोत्सव मनाने की बजाए महिलाओं के लिए अमावस्या की रात बने हुए हैं। महिलाएं आज भी रूढ़िवादी परंपराओं को सहने को अभिशप्त हैं।
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में एक जनजाति समुदाय में महिला को न सिर्फ प्रताड़ित करके घर से बाहर निकाल दिया गया, बल्कि उसके परिवार पर 10 लाख रुपए का जुर्माना इसीलिए थोप दिया गया कि क्योंकि वह कुकड़ी प्रथा (कौमार्य) परीक्षण में विफल रही। इसके लिए उसे पति और ससुरालजनों ने प्रताड़ित किया और घर से निकाल दिया। विवाहित महिला को सिर्फ इतना ही दंश नहीं झेलना पड़ा। कौमार्य परीक्षण में विफल हो जाने पर जातीय पंचायत ने उसके परिजनों पर दस लाख का जुर्माना लगा दिया। यह मामला अब पुलिस में दर्ज है। ऐसा मामला पुलिस में पहली बार दर्ज नहीं हुआ है। इससे पहले भी कुकड़ी प्रथा के कारण महिलाओं और उनके परिजनों को प्रताड़ित करने के मामले सामने आ चुके हैं।
दुर्भाग्य यह है कि एक तरफ देश अमृत महोत्सव मना रहा है, वहीं दूसरी तरफ ऐसे भी समुदाय और जातीय वर्ग हैं जो अभी तक रूढ़िवादी गुलामी की परंपराओं को ढो रहा है। ऐसे मामले सामने आने पर महिला सशिक्तकरण के वादे और नारे हवाई ज्यादा नजर आते हैं। व्यवहारिक तौर पर महिलाओं की हालत कितनी नारकीय है, इसका प्रमाण विवाह के बाद जाति विशेष में कौमार्य परीक्षण की परंपरा है। ऐसा कोई परीक्षण पुरुषों पर लागू नहीं है, इस दासता की शिकार सिर्फ महिलाएं ही होती हैं। पुरुष अपनी मनमर्जी करने के लिए पूरी तरह आजाद है। उन पर किसी तरह का ऐसा कोई सामाजिक या पारिवारिक बंधन लागू नहीं है।
राजस्थान में एक और प्रथा है, जिसे नाता प्रथा कहा जाता है। अमूमन इस प्रथा में महिला के परिजन ही रुपए लेकर पहले पति के होने के बावजूद किसी दूसरे के साथ उसका विवाह कर देते हैं। यह प्रक्रिया बगैर कानूनी तलाक के होती है। इसमें महिलाओं को किसी वस्तु की तरह इधर से उधर किया जाता है। कई बार तो एक महिला दो-तीन पतियों को छोड़ने के लिए विवश कर दी जाती है। ऐसा नहीं है कि अकेला राजस्थान ही महिलाओं की ऐसी हालत के लिए बदनाम है। वर्ष 2019 में मुंबई मे एक पिछड़े वर्ग की युवती का कौमार्य परीक्षण का मामला देश भर में सुर्खियों में आया था। हालांकि महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों के लिए कानून बने हुए हैं। इसके बावजूद विकास और शिक्षा की रोशनी ऐसे वंचित समुदायों में आजादी के बाद से नहीं पहुंची है।
सवाल यही है कि आखिर महिलाएं कब तक ऐसे जुल्मों-सितम का शिकार होती रहेंगी। पुलिस ने कई बार ऐसे मामलों में पति और ससुराल जनों के विरुद्ध कार्रवाई भी की है। इसके बावजूद ऐसी घटनाएं गाहे-बगाहे सामने आती रहती हैं। मुद्दा यह नहीं है कि देश और समाज के हाशिए पर पड़े कुछ वर्ग में इस तरह की आदिम परंपराएं जारी हैं। सवाल यह है कि आखिर उन तक शिक्षा की अलख और विकास की रोशनी क्यों नहीं पहुंच पाई? शिक्षा और जनजागृति के अभाव में ऐसी जातियां या समूह की महिलाएं आज भी मध्यकालीन युग के जुल्मों-सितम सहने को मजबूर हैं।
इस तरह की कुरीतियों का ठोस समाधान करने के लिए किसी भी राजनीतिक दल और सरकारों ने कभी गंभीरता से प्रयास नहीं किया। राजनीतिक दलों ऐसे मामलों से खुद को दूर ही रखते हैं। उन्हें डर रहता है कि ऐसे मामलों में बीच में पड़ने से कहीं उनका वोट बैंक नहीं खिसक जाए। इतना ही नहीं वोट बैंक के लालच में राजनीतिक दल ऐसी कुरीतियों को बढ़ावा देने में भी पीछे नहीं रहते। राजस्थान और दूसरे राज्यों में आखातीज के अबूझ सावे पर हर साल नाबालिगों की होने वाली शादियां इसका जीवंत प्रमाण हैं। प्रशासन प्रतीकात्मक तौर पर सूचना मिलने पर ऐसे विवाह को रुकवाने की रस्मादायगी भर करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। गरीबी और अशिक्षा से जुड़ी इस समस्या का स्थायी समाधान कभी नहीं ढूँढ़ा गया।
राजनीतिक दल ऐसे विवाह में शामिल होने का मोह नहीं त्याग पाते। अनैतिक और गैरकानूनी होने पर भी ऐसे विवाहों में शरीक होकर मतदाताओं को खुश रखने का प्रयास किया जाता है। यदि कभी इसका खुलासा हो जाए तो नेताओं के पास सीधा-सा बहाना होता है कि उन्हें विवाहितों के नाबालिग होने का पता नहीं था। नेता बेशक अपने राजनीतिक फायदे के लिए ऐसी कुरीतियों को प्रश्रय देते हों, किन्तु कानून का मौन रहना स्तब्धकारी है। महिला विरोधी ऐसे कृत्यों की पुनरावृत्ति अक्सर होती रहती हैं, किन्तु इनके स्थायी निदान की दिशा कभी ठोस समाधान नहीं किए गए। यदि ऐसा होता तो कौमार्य परीक्षण के नाम पर एक विवाहिता और उसके परिजनों को अत्याचारों का सामना नहीं करना पड़ता।