
उत्तर प्रदेश में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) ने जहां अवैध और दोहरे मतदाताओं पर शिकंजा कसने का दावा किया है, वहीं यह प्रक्रिया साधु-संतों के लिए नई परेशानी बन गई है। धार्मिक नगरीयों में साधु-संन्यासियों के नाम कटने की आशंका ने बीजेपी के सामने एक अप्रत्याशित राजनीतिक और प्रशासनिक चुनौती खड़ी कर दी है। उत्तर प्रदेश में चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी SIR की प्रक्रिया अब केवल प्रशासनिक कवायद नहीं रह गई है, बल्कि यह एक संवेदनशील राजनीतिक मुद्दे का रूप लेती जा रही है। अब तक विपक्ष जहां इस प्रक्रिया को अपने लिए खतरे के तौर पर देख रहा था, वहीं अब खुद सत्तारूढ़ बीजेपी के लिए भी SIR असहज स्थिति पैदा कर रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह धार्मिक शहरों में रहने वाले साधु-संत और संन्यासी हैं, जिनकी जीवन शैली और पहचान व्यवस्था इस प्रक्रिया के मौजूदा नियमों से टकरा रही है।
SIR के तहत चुनाव आयोग ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी व्यक्ति एक समय में केवल एक ही स्थान का मतदाता हो सकता है। ऐसे में जिन लोगों के नाम गांव और शहर दोनों जगह की मतदाता सूचियों में दर्ज हैं, उन्हें एक स्थान चुनना अनिवार्य हो गया है। उत्तर प्रदेश में सामने आए शुरुआती रुझानों के अनुसार बड़ी संख्या में लोग शहरों की मतदाता सूची से अपना नाम कटवाकर गांव की वोटर लिस्ट में बने रहना पसंद कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति उस सामाजिक बदलाव को भी उजागर करती है, जिसमें रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करने वाले लोग मताधिकार के मामले में अपने गांव से नाता बनाए रखना चाहते हैं।
लेकिन SIR की सबसे जटिल स्थिति धार्मिक नगरीयों—अयोध्या, मथुरा, वृंदावन और वाराणसी—में देखने को मिल रही है। यहां रहने वाले अधिकांश साधु-संत सांसारिक जीवन का त्याग कर चुके होते हैं। उनके आधिकारिक दस्तावेजों में पिता के स्थान पर उनके आध्यात्मिक गुरु का नाम दर्ज होता है और माता के नाम का उल्लेख प्रायः नहीं किया जाता। SIR फॉर्म में माता के नाम का कॉलम अनिवार्य होने के कारण बड़ी संख्या में साधु-संन्यासी असमंजस में हैं। यदि यह कॉलम खाली छोड़ा गया तो उनका नाम मतदाता सूची से हटने का खतरा है।
अयोध्या में भाजपा के पूर्व सांसद और विश्व हिंदू परिषद के नेता रामविलास वेदांती ने इस समस्या से निपटने के लिए अपने फॉर्म में माता के नाम के स्थान पर ‘जानकी’ लिखा है, जो माता सीता का दूसरा नाम है। दिगंबर अखाड़ा के महामंडलेश्वर प्रेम शंकर दास सहित कई अन्य साधु भी माता के नाम की जगह जानकी, सीता, कौशल्या या सुमित्रा जैसे नाम दर्ज कर रहे हैं। यह स्थिति दर्शाती है कि साधु-संन्यासी प्रशासनिक औपचारिकताओं को अपनी धार्मिक आस्था के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि उनका मताधिकार सुरक्षित रह सके।
महामंडलेश्वर प्रेम शंकर दास के अनुसार, अयोध्या स्थित उनके सिद्धपीठ रामधाम आश्रम में कुल 12 मतदाता हैं, लेकिन उनमें से कई इस समय धार्मिक यात्राओं पर हैं। ऐसे में बूथ स्तरीय अधिकारी अभी तक सभी तक SIR फॉर्म नहीं पहुंचा पाए हैं। प्रशासन के सामने यह भी चुनौती है कि साधु-संतों की लगातार यात्रा और अस्थायी निवास व्यवस्था के कारण समय सीमा के भीतर फॉर्म भरवाना कठिन हो रहा है।
प्रशासनिक स्तर पर स्थिति को संभालने के प्रयास भी जारी हैं। अयोध्या के निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी के अनुसार, यात्रा पर गए साधुओं से जुड़े मंदिरों और आश्रमों के प्रमुखों से लगातार संपर्क किया जा रहा है ताकि सभी आवश्यक दस्तावेज समय पर पूरे किए जा सकें। चुनाव आयोग ने SIR की अंतिम तिथि 11 दिसंबर से बढ़ाकर 26 दिसंबर कर दी है, जिसे बीजेपी और प्रशासन दोनों के लिए राहत के रूप में देखा जा रहा है।
कुल मिलाकर, SIR की प्रक्रिया ने उत्तर प्रदेश में एक नई राजनीतिक और सामाजिक बहस को जन्म दे दिया है। जहां एक ओर इसका उद्देश्य मतदाता सूची को शुद्ध और पारदर्शी बनाना है, वहीं दूसरी ओर यह प्रक्रिया धार्मिक परंपराओं और साधु-संन्यासियों की विशिष्ट जीवन शैली से टकराती नजर आ रही है। ऐसे में यह देखना अहम होगा कि आने वाले दिनों में चुनाव आयोग और सरकार इस संतुलन को कैसे साधते हैं, ताकि लोकतांत्रिक अधिकार भी सुरक्षित रहें और धार्मिक संवेदनशीलता भी प्रभावित न हो।






