
पिथौरागढ़ | पिथौरागढ़ जिले के पहाड़ी गांवों में बंदर, लंगूर, जंगली सुअर, तेंदुआ और भालू के बढ़ते हमलों ने ग्रामीण जीवन को संकट में डाल दिया है। खेती, बागवानी और छोटे कारोबार तबाह होने से लोग गांव छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं और मानव-वन्यजीव संघर्ष गंभीर रूप ले चुका है। पिथौरागढ़ जिले के पहाड़ी क्षेत्रों में पहले से पलायन की मार झेल रहे गांवों में अब सन्नाटे के साथ डर भी बसने लगा है। खेतों की मेड़ों से लेकर आंगन की देहरी और अब घरों के भीतर तक बंदर और लंगूर बेखौफ घूम रहे हैं। जो वन्यजीव कभी जंगलों तक सीमित माने जाते थे, वे अब ग्रामीणों की रोजमर्रा की जिंदगी का सबसे बड़ा संकट बनते जा रहे हैं। खेतों, बागानों और घरों में हो रही तबाही ने ग्रामीणों की मेहनत और आजीविका दोनों को खतरे में डाल दिया है।
जिले के अधिकांश गांवों में इन दिनों नारंगी, नींबू और माल्टा जैसे फलों से लदे बागानों में खुशहाली की जगह तबाही का मंजर है। बंदर और लंगूर फल खाने के साथ-साथ टहनियां तोड़ रहे हैं और पूरे पेड़ों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि ये जानवर अब केवल खेतों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि घरों के भीतर घुसकर अनाज, राशन और मवेशियों की चारा-पत्ती तक नष्ट कर रहे हैं। उन्हें भगाने की कोशिश करने पर ये हमला करने दौड़ पड़ते हैं, जिससे बुजुर्गों, महिलाओं और बच्चों में दहशत का माहौल है।
विनियाखोला की निर्मला देवी बताती हैं कि पहले बंदर और लंगूरों की संख्या सीमित थी, लेकिन अब इनकी आबादी बेकाबू हो चुकी है। इसके बावजूद इन्हें नियंत्रित करने के लिए कोई ठोस प्रयास नजर नहीं आ रहे हैं। उनकी पीड़ा इस बात में झलकती है कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो एक दिन ये वन्यजीव ग्रामीणों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर देंगे। तब गांवों में केवल बंदर-लंगूरों का डेरा होगा और लोग रोज़गार की तलाश में पलायन को मजबूर होंगे। थल, झूलाघाट, गंगोलीहाट सहित जिले के कई गांवों में हालात एक जैसे हैं। झूलाघाट बाजार से लेकर कानड़ी, भटेड़ी, मजिरकांड़ा, रावल गांव, हनेरा, खतेड़ा और लाली तक बंदर और लंगूरों ने फलों और बागवानी को भारी नुकसान पहुंचाया है। वहीं जंगली सुअरों ने खेतों को खोदकर फसलों की कमर तोड़ दी है। जो खेत कभी हरियाली से लहलहाते थे, वे अब धीरे-धीरे बंजर होते जा रहे हैं। इससे किसान मायूस हैं और खेती छोड़ने की मजबूरी उनके सामने खड़ी हो गई है।
मानव-वन्यजीव संघर्ष केवल बंदर और लंगूरों तक सीमित नहीं है। धारचूला, मुनस्यारी और नाचनी क्षेत्रों में तेंदुए और भालू की दहशत भी लगातार बनी हुई है। बीते एक महीने में इन इलाकों में वन्यजीवों के हमलों में आठ लोग घायल हो चुके हैं। घास काटने, जंगल जाने या खेतों में काम करने जाना अब जोखिम भरा हो गया है। ग्रामीणों का कहना है कि जब जंगल और खेत दोनों असुरक्षित हो जाएं तो गांव में रहना ही मुश्किल हो जाता है। ग्रामीणों की पीड़ा उनके शब्दों में साफ झलकती है। खोलियागांव के हीरा सिंह पाल कहते हैं कि बंदर और लंगूर अब फसलों के साथ-साथ घरों के भीतर तक घुसने लगे हैं, जिससे खेती-किसानी करना लगभग असंभव हो गया है। अस्कोट की गंगा देवी बताती हैं कि दिन-रात की मेहनत से बोई गई फसलें ये जानवर पल भर में बर्बाद कर देते हैं, जिससे किसानों का मनोबल टूट रहा है। वहीं अस्कोट व्यापार संघ अध्यक्ष गोविंद सिंह का कहना है कि बंदर और लंगूर दुकानों से सामान और फल उठाकर ले जा रहे हैं और भगाने पर काटने को दौड़ते हैं, जिससे छोटे कारोबार भी ठप पड़ने लगे हैं।
कुल मिलाकर पिथौरागढ़ के पहाड़ी गांवों में बढ़ता मानव-वन्यजीव संघर्ष अब केवल वन विभाग या प्रशासन का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह ग्रामीण जीवन, खेती और पहाड़ों के भविष्य से जुड़ा गंभीर संकट बन चुका है। यदि समय रहते प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो खेती के साथ-साथ गांव भी उजड़ते चले जाएंगे और पलायन की समस्या और गहरी होती जाएगी।





