
नई दिल्ली |अंटार्कटिका में ब्लैक कार्बन की मौजूदगी ने वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों की चिंता बढ़ा दी है। राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर) के वैज्ञानिकों के अध्ययन में यह सामने आया है कि पूर्वी अंटार्कटिका में ब्लैक कार्बन के कारण ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का खतरा बढ़ सकता है। यह खोज ऐसे समय में हुई है, जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्परिणामों से जूझ रही है।
एनसीपीओआर के वैज्ञानिक डॉ. महेश बांदल के अनुसार, वे पिछले दो वर्षों से अंटार्कटिका में अध्ययन कर रहे हैं। इस दौरान पूर्वी अंटार्कटिका के लासर्मन हिल्स क्षेत्र के पास स्थित पपलगून नामक झील के सेडीमेंट में ब्लैक कार्बन की मौजूदगी पाई गई। यह तथ्य इसलिए भी चौंकाने वाला है, क्योंकि अंटार्कटिका का 99 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बर्फ से ढका हुआ है और यहां स्थानीय स्तर पर ब्लैक कार्बन के स्रोत लगभग नहीं के बराबर हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह ब्लैक कार्बन हजारों किलोमीटर दूर साउथ अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया में लगने वाली जंगल की आग से उत्पन्न होकर हवा के माध्यम से अंटार्कटिका तक पहुंचा होगा। अध्ययन में यह भी सामने आया है कि यह ब्लैक कार्बन पिछले करीब सात हजार वर्षों से वहां मौजूद है, जिससे संकेत मिलता है कि जंगलों में आग लगने की घटनाएं प्राचीन काल से होती रही हैं और उनका प्रभाव दूरस्थ ध्रुवीय क्षेत्रों तक पहुंचता रहा है।
डॉ. महेश बांदल बताते हैं कि ब्लैक कार्बन का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह ऊष्मा को तेजी से अवशोषित करता है। जब यह बर्फ या ग्लेशियरों की सतह पर जमा हो जाता है, तो पिघलने की प्रक्रिया और तेज हो जाती है। इसका सीधा असर अंटार्कटिका की बर्फ पर पड़ता है, जिससे भविष्य में समुद्र के जलस्तर में वृद्धि की आशंका भी बढ़ जाती है।
विशेषज्ञों के अनुसार, अंटार्कटिका के ग्लेशियरों का तेज पिघलाव पूरी दुनिया के तटीय क्षेत्रों के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। यह खोज इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जंगलों की आग और प्रदूषण जैसी घटनाएं केवल स्थानीय समस्या नहीं रहीं, बल्कि उनका प्रभाव अब पृथ्वी के सबसे दूरस्थ और संवेदनशील क्षेत्रों तक पहुंच चुका है।







