
देश की सीमाओं की रक्षा करने वाला एक पिता उस वक्त पूरी तरह टूट गया, जब अपने ही घर के दीपक को वह सिस्टम की असंवेदनशीलता के कारण खो बैठा। ये कहानी है जम्मू-कश्मीर में तैनात सैनिक दिनेश चंद्र की, जिनका डेढ़ साल का मासूम बेटा शुभांशु जोशी इलाज के इंतजार में पांच अस्पतालों में भटकते हुए मौत के मुंह में चला गया। यह घटना न सिर्फ उत्तराखंड के स्वास्थ्य तंत्र पर, बल्कि पूरे सरकारी सिस्टम पर एक कठोर प्रश्नचिह्न बनकर उभरी है।
घटनाक्रम: पांच घंटे, पांच अस्पताल, और एक मासूम की मौत
10 जुलाई की दोपहर बाद शुभांशु की तबीयत अचानक बिगड़ने लगी। उसकी मां और दादी उसे लेकर सबसे पहले ग्वालदम अस्पताल पहुंचीं। वहां इलाज मयस्सर नहीं हुआ, और बच्चे को बैजनाथ फिर बागेश्वर के लिए रेफर कर दिया गया। शाम 6 बजे शुभांशु को बागेश्वर जिला अस्पताल में भर्ती किया गया, लेकिन डॉक्टरों ने स्थिति गंभीर बताकर उसे फिर हल्द्वानी हायर सेंटर के लिए रेफर कर दिया। लगभग पांच घंटे में शुभांशु को ग्वालदम, बैजनाथ, बागेश्वर, अल्मोड़ा और हल्द्वानी जैसे पांच अस्पतालों में घुमाया गया, लेकिन इलाज नहीं मिला।
108 एंबुलेंस बनी सबसे बड़ा रोड़ा
बागेश्वर से हल्द्वानी ले जाने के लिए जब परिजनों ने 108 एंबुलेंस को कॉल किया, तो मिला केवल आश्वासन। करीब एक घंटे तक इंतजार करने के बावजूद कोई एंबुलेंस नहीं आई। आखिरकार दिनेश चंद्र ने स्वयं जिलाधिकारी को फोन कर मदद मांगी, तब जाकर रात साढ़े नौ बजे एक एंबुलेंस मिली — लेकिन तब तक शुभांशु की हालत बिगड़ चुकी थी। अल्मोड़ा से हल्द्वानी पहुंचने से पहले ही मासूम ने दम तोड़ दिया।
“सरहद पर खड़ा हूं, लेकिन सिस्टम से हार गया”
अपने बेटे के अंतिम संस्कार के बाद फौजी पिता ने सोशल मीडिया पर एक मार्मिक वीडियो साझा किया, जिसमें उन्होंने सिर्फ दुख नहीं जताया, बल्कि सवाल भी उठाए—
“अगर एक सैनिक के परिवार को यह मिल रहा है, तो आम आदमी का क्या होगा? वादों के पुलिंदे बनते हैं, लेकिन ज़मीन पर एक एंबुलेंस तक समय पर नहीं मिलती।”
अस्पताल प्रशासन और स्वास्थ्य महकमे पर गंभीर आरोप
दिनेश चंद्र का आरोप है कि जब उन्होंने डॉ. भूपेंद्र घटियाल से एंबुलेंस की देरी पर जवाब मांगा तो उन्हें उचित जवाब नहीं मिला, बल्कि अभद्र व्यवहार का सामना करना पड़ा। उन्होंने बागेश्वर जिला अस्पताल की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए हैं।
उठते सवाल:
- पांच अस्पतालों ने प्राथमिक इलाज क्यों नहीं दिया? क्या इनमें डॉक्टर और संसाधन नहीं थे?
- 108 एंबुलेंस सेवा क्यों नहीं समय पर पहुंची? क्या सिस्टम में आपात सेवा का कोई वैकल्पिक प्लान नहीं है?
- डीएम के आदेश के बिना एंबुलेंस क्यों नहीं चली? क्या सभी सेवाएं अब अधिकारियों के आदेशों पर ही निर्भर हैं?
- अस्पताल स्टाफ की संवेदनहीनता पर कोई निगरानी क्यों नहीं?
प्रशासन का जवाब और बयान
सीएमएस डॉ. तपन कुमार शर्मा का कहना है—
“108 सेवा हमारे अधीन नहीं है। अगर आधे घंटे में 108 नहीं पहुंचती तो हम अपनी एंबुलेंस भेजते हैं। उस दिन क्या चूक हुई, जांच की जाएगी।”
सीएमओ डॉ. कुमार आदित्य तिवारी ने कहा—
“शिकायत मिलने पर जांच कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। 108 सेवा के प्रभारी को नोटिस भेजा गया है।”
यह सिर्फ एक बच्चा नहीं था, यह एक सिस्टम की असफलता की कीमत थी
यह घटना सिर्फ एक मासूम की मौत नहीं है, यह उन हज़ारों परिवारों की त्रासदी का प्रतीक है जो हर साल सरकारी सिस्टम की लापरवाही की भेंट चढ़ते हैं। जब एक फौजी अपने बच्चे को नहीं बचा पाया, तो आम नागरिकों के लिए हालात की कल्पना की जा सकती है। फौजी पिता का सवाल तंत्र से है — “क्या हमें अपने बच्चों की जान के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी?” अब यह उत्तराखंड सरकार और स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी है कि न केवल इस मामले में त्वरित और कड़ी कार्रवाई करे, बल्कि भविष्य के लिए ऐसा तंत्र तैयार करे, जिसमें किसी शुभांशु की जान सिर्फ देरी की वजह से न जाए।