
बिहार | 1989 में बिहार के भागलपुर में हुआ सांप्रदायिक दंगा देश के सबसे भयावह दंगों में से एक माना जाता है। यह दंगा न केवल सैकड़ों लोगों की मौत की वजह बना बल्कि उस समय की सरकार की नींव भी हिला गया। अफवाहों, धार्मिक तनाव और राजनीतिक स्वार्थों के कारण भड़का यह दंगा राज्य की राजनीति के लिए निर्णायक साबित हुआ। भागलपुर में दंगे की शुरुआत अगस्त 1989 में मुहर्रम और बिशहरी पूजा के दौरान हुए तनाव से हुई थी। हालांकि, असली हिंसा अक्तूबर में तब भड़की जब राम मंदिर निर्माण के समर्थन में विश्व हिंदू परिषद द्वारा निकाले गए रामशिला जुलूस के दौरान नारेबाजी और अफवाहों ने माहौल को पूरी तरह जला दिया। 24 अक्तूबर को तातारपुर क्षेत्र में जुलूस पर बम फेंका गया, जिससे पुलिसकर्मी घायल हुए और शहर में हिंसा की आग फैल गई। अगले तीन दिनों तक पूरे भागलपुर में आगजनी, लूटपाट और हत्याएं होती रहीं।
पत्रकार सईद नकवी के अनुसार, भागलपुर के चंदेरी और राजपुर क्षेत्रों में एक ही रात में करीब 70 लोगों की हत्या कर दी गई। पास के तालाब से 61 शव निकाले गए थे। वहीं, लौगांय गांव में 27 अक्तूबर को भीड़ ने हमला कर दिया और करीब 115 लोगों को मार डाला। शवों को पहले पोखर और कुएं में फेंका गया, बाद में खेत में गाड़ दिया गया। उसी खेत में गोभी की फसल उगा दी गई। दिसंबर 1989 में जांच के दौरान इस खेत से 108 शव निकाले गए थे। ‘इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के अनुसार, दंगे भागलपुर जिले के 21 में से 15 प्रखंडों में फैल गए थे और 250 से अधिक गांव प्रभावित हुए थे। करीब 50 हजार लोग बेघर हो गए। स्थिति बिगड़ने पर 27 अक्तूबर को सेना और बीएसएफ को बुलाया गया।
उस समय बिहार में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा दिल्ली में मौजूद थे। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आदेश के बाद वे भागलपुर लौटे। प्रशासनिक विफलता और दंगे को नियंत्रित न कर पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उनकी जगह जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह दंगा कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ और पार्टी फिर कभी अपने बल पर बिहार की सत्ता में नहीं लौट सकी। घटनाओं की जांच के लिए 8 दिसंबर 1989 को दो आयोग गठित किए गए। एक आयोग जस्टिस रामचंद्र प्रसाद सिन्हा और जस्टिस शम्सुल हसन की अगुवाई में था, जबकि दूसरा आयोग जस्टिस आरएन प्रसाद के नेतृत्व में बना। दोनों आयोगों की रिपोर्टों में मतभेद थे। जस्टिस प्रसाद ने दोनों समुदायों को समान रूप से जिम्मेदार माना, जबकि दूसरे आयोग ने प्रशासनिक लापरवाही और राजनीतिक मिलीभगत को दोषी ठहराया।
सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी यादें, मेरी भूलें’ में लिखा कि राज्य के कुछ कांग्रेस नेताओं ने निजी लाभ के लिए सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा दिया था। उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष शिवचंद्र झा को दंगे भड़काने के लिए जिम्मेदार बताया। दंगे के बाद 142 एफआईआर दर्ज हुईं और हजारों लोगों पर आरोप लगे, लेकिन कार्रवाई वर्षों तक लंबित रही। 2005 में 10 लोगों को आजीवन कारावास और 2007 में लौगांय हिंसा के 14 आरोपियों को सजा मिली।
2005 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सत्ता संभालने के बाद जस्टिस एनएन सिंह की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग गठित किया। इस आयोग ने फरवरी 2015 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसमें कांग्रेस सरकार को दंगों को रोकने में विफल बताया गया और स्थानीय पुलिस-प्रशासन को भी जिम्मेदार ठहराया गया। भागलपुर दंगे ने बिहार की राजनीति, समाज और प्रशासनिक व्यवस्था को गहराई से प्रभावित किया। यह दंगा नफरत, अफवाह और सत्ता की राजनीति के उस भयावह संगम की मिसाल है, जिसने इंसानियत को शर्मसार कर दिया और राज्य की सियासत की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।






