
बागेश्वर। अगस्त 2024 में जाख-हड़बाड़ गांव पर बरसी बारिश ने पूरे इलाके को तबाह कर दिया था। नौ परिवारों के घर, खेत और बगीचे मलबे में समा गए। उस वक्त नेताओं और अफसरों का जमावड़ा लगा, कैमरे चमके, राहत और पुनर्वास के वादे किए गए। लेकिन अब, तीन महीने बीत जाने के बाद, गांव फिर से उसी खामोशी में डूबा हुआ है—जहां केवल दरकी दीवारें और मलबे में दबी उम्मीदें हैं।
राज्य स्थापना की रजत जयंती के उत्सवों के बीच, जाख-हड़बाड़ गांव का दर्द भूला जा चुका है। 13 अगस्त की वह भयावह रात आज भी ग्रामीणों की रूह कंपा देती है, जब लगातार बारिश ने गैर तोक इलाके की धरती को फाड़ डाला। सड़क के बीचोंबीच गहरी दरारें पड़ीं, कई मकान झुक गए और कुछ ढह गए। नौ परिवारों की जिंदगी का सबकुछ खत्म हो गया—घर, खेत, दुकानें, यहां तक कि जीने की जगह भी।
उस समय केंद्रीय मंत्री अजय टम्टा, नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य, जिलाधिकारी और केंद्रीय टीम के अधिकारी गांव पहुंचे थे। कैमरों के सामने संवेदना जताई गई, राहत का भरोसा दिलाया गया। लेकिन बरसात खत्म होते ही सरकार और तंत्र का ध्यान भी खत्म हो गया। अब गांव में बस टूटी सड़कों और सिसकते चेहरों की कहानियां हैं।
प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत कमला देवी का जो घर बना था, वह अब दरारों में बिखर चुका है। नंदा बल्लभ की आटा चक्की और ललित सिंह की दुकान मलबे में तब्दील हैं। पेयजल लाइनें टूट चुकी हैं, बिजली के खंभे झुक गए हैं। जीवन अब जुगाड़ पर चल रहा है। गांव धीरे-धीरे नीचे की ओर खिसक रहा है, और हर दिन एक नए खतरे की दस्तक दे रहा है।
बुजुर्ग बसंती देवी की आंखों में अब भी डर झलकता है। चार बच्चों के परिवार के लिए सिर छुपाने की जगह नहीं है। ग्रामीण जगदीश सिंह कहते हैं, “बहुत नेता आए, तस्वीरें खिंचवाईं और चले गए। अब कोई देखने नहीं आता कि हम जिंदा भी हैं या नहीं।”
राहत शिविर या नई आपदा
प्रशासन ने इन नौ परिवारों को पंचायत घर, प्राथमिक विद्यालय और आंगनवाड़ी केंद्र में अस्थायी रूप से शिफ्ट किया है। दिन में जहां बच्चे पढ़ते हैं, वहीं रात को आपदा पीड़ित परिवार अपने बच्चों के साथ सोते हैं। न तो निजता है, न सुविधा। राहत किट से किसी तरह गुजारा चल रहा है। रेडक्रॉस सोसायटी ने कंबल और तिरपाल दिए हैं, मगर पुरखों की जमीन खोने का दर्द कोई किट नहीं मिटा सकती।
प्राथमिक विद्यालय और राहत केंद्र खुद जर्जर हैं। दीवारों में दरारें, सीलन और टूटी छतें सरकारी इंतजामों की हकीकत बयान करती हैं। दिन में परिवार अपने टूटे घरों की ओर जाकर मवेशियों की देखभाल करते हैं और रात होते ही वापस इन अस्थायी शिविरों में लौट आते हैं।
पूर्व सैनिक की व्यथा: “पाकिस्तान को हराया, पर अपनों से हार गया”
गांव के पूर्व सैनिक सूबेदार उदय सिंह बताते हैं कि कारगिल युद्ध में उन्होंने पाकिस्तान को धूल चटाई थी, लेकिन अपने ही राज्य में आज वे बेबस हैं। उनके भाइयों के घर तबाह हो चुके हैं और अब वे राहत शिविर में जी रहे हैं। वह कहते हैं, “पटवारी से लेकर दिल्ली तक सबको हाल पता है, पर मदद कोई नहीं करता। जब जनता की सुध कोई नहीं ले रहा, तो अलग राज्य बनने का फायदा क्या?”
ग्रामीणों का दर्द अब शब्दों में नहीं
कमला देवी कहती हैं, “हर दिन टूटे घर को देखने जाते हैं, फिर रात शिविर में गुजारते हैं। शुरुआत में अफसर आए, पैसे दिए, अब कोई नहीं पूछता।”
बसंती देवी बताती हैं, “हर रात डर के साए में बीतती है, गांव नीचे खिसक रहा है।”
पूरन राम का कहना है, “शुरुआत में आश्वासन मिला, अब कोई नहीं आता यह देखने कि हम जिंदा हैं या नहीं।”
कागजों में राहत, जमीन पर हकीकत
जिला आपदा नियंत्रण कक्ष के मुताबिक, सभी नौ परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया है। 9 सितंबर को डीएम, एसडीएम और केंद्रीय टीम ने निरीक्षण किया था। रिपोर्ट तैयार हुई, फोटो खींचे गए, फाइलें आगे बढ़ीं। लेकिन आज सर्दी दरवाजे पर है और राहत की फाइलें न जाने कहां अटकी हैं।
राजनीतिक बयानबाजी में दबा दर्द
भाजपा विधायक सुरेश गढ़िया का कहना है कि विस्थापन की प्रक्रिया अंतिम चरण में है और जल्द समाधान निकलेगा। वहीं कांग्रेस विधायक व नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य का आरोप है कि “अधिकारियों का काम सिर्फ कागजों में है, समीक्षा कोई नहीं करता। यह सिर्फ बागेश्वर नहीं, पूरे प्रदेश की तस्वीर है।”
पर हकीकत यह है कि कैमरे बंद हो चुके हैं, दौरे खत्म हो गए हैं और हड़बाड़ की रातें अब भी लंबी हैं। गांव की हवा में बस एक ही सवाल तैर रहा है — “राहत की तस्वीरें तो हर साल आती हैं, लेकिन राहत खुद कब आएगी?”




