देहरादून। उत्तराखंड के बहुआयामी विकास का महामंथन आज संवाद में हुआ। कार्यक्रम में शिक्षा, खेल, धर्म, बिजनेस समेत विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल हुए। अंतिम सत्र में अभिनेता जॉन अब्राहम से चर्चा हुई। इस दौरान अभिनेता की जिंदगी और करियर के साथ-साथ ‘सिनेमा के एक्शन की बात’ पर चर्चा हुई। जॉन अब्राहम ने कहा कि मैं आर्टिकल पढ़ता हूं, मैं हर चीज पर नजर रखता हूं। न सिर्फ देश बल्कि दुनिया से जुड़ी घटनाओं पर नजर रखना पसंद है। साथ ही युवाओं को लेकर कहा कि आप सब प्लीज पहले पढ़ाई करो, मैं एमबीए हूं। शिक्षा जरूरी है। सेहत के लिए कैलोरी जरूरी है। जंक फूड न खाएं।
जॉन अब्राहम ने कहा कि बहुत आसान सी बात है। फिल्म अच्छी होगी तो चलेगी। अच्छी नहीं होगी तो कितनी भी मार्केटिंग कर लीजिए, फिल्म नहीं चलेगी। आज मैं यहां मंच पर हूं और हम प्रासंगिक बातें कर रहे हैं। मैं गलत भी हो सकता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि इसकी तुलना में किसी मॉल में जाकर नाचेंगे तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। जैसे पठान एक मनोरंजक फिल्म थी, तो चल गई। काफी लोग कहते हैं कि इंस्टाग्राम पर रील बनाइए, ये कीजिए, वो कीजिए। मेरा कहना है कि आपका क्राफ्ट ही अच्छा नहीं है, फिल्मांकन सही नहीं है तो रील्स बनाने का फायदा क्या है? वो सब फिर बेकार है। मेरे पास वॉट्सएप नहीं है, मैं सोशल मीडिया इस्तेमाल नहीं करता। मैं जो काम करता हूं, मैं उसी पर ध्यान केंद्रित करता हूं। मेरी जिंदगी में ब्लू टिक और ग्रे टिक नहीं है, इसलिए कोई तनाव नहीं है। मेरी मानिए, आप भी अपनी जिंदगी से उसे निकाल दीजिए।
जॉन अब्राहम ने कहा मैं यहां परमाणु और बाटला हाउस की शूटिंग के लिए यहां आए थे। मैं यहां और मसूरी गया था। देहरादून मेरे लिए लकी है। आपको मैं गारंटी के साथ कहता हूं कि वेदा सिर्फ एक्शन फिल्म नहीं बल्कि इमोशनल भी है। जॉन अब्राहम बोले- शुरुआत में मुझे आसानी से फिल्म मिलीं, लेकिन फिल्म के साथ आलोचना भी हुई। मैं मनोज वाजपेयी को बहुत पसंद करता हूं। वह बहुत अच्छे अभिनेता हैं। मैंने उनके साथ सत्यमेव जयते (पार्ट वन) में काम किया। मैं हर किसी से सीखता हूं और हर किसी से सीखना चाहता हूं।
जॉन अब्राहम बोले कि मैं बहुत ही मध्यमवर्ग परिवार से आता हूं। मेरे बैंक अकाउंट में 550 रुपये थे, जब मैंने शुरू किया। तब लोगों ने कहा कि नाकाम हुए तो क्या करेंगे। मैंने कहा था कि नाकाम हुआ तो घाटा कितना होगा? सिर्फ 550 रुपये। जिंदगी सादगीभरी होनी चाहिए। कपड़े सादे पहनिए। आपके लिए जितना जरूरी है, उतना ही कीजिए। गाड़ी चाहिए तो गाड़ी खरीदो, लेकिन दूसरों के दबाव में हर दूसरे साल गाड़ी मत खरीदो। जॉन अब्राहम बोले कि हमें इस पर काम करने में तीन-चार साल लगे। हमारे मन में भी सवाल था कि इसे करें या नहीं करें क्योंकि यह संवेदनशील मुद्दा है।
मैं और निखिल आडवाणी इस बारे में साफ नजरिया रखते थे कि इस पर फिल्म बननी चाहिए। आप मेरी फिल्में देखेंगे तो बतौर प्रोड्यूसर मेरी पहली फिल्म थी विकी डोनर। मेरी अगली फिल्म मद्रास कैफे थी, फिर परमाणु बनी। मुझे सेना की वर्दी पहनना या भारत का प्रतिनिधित्व करना मुझे अच्छा लगता है। बतौर प्रोड्यूसर भारत के बारे में अच्छी चीजें बताना मेरी जिम्मेदारी बनती है। हम हॉलीवुड फिल्में देखकर सोचते हैं कि काश हम नेवी सील्स जैसे दिखें। तो ऐसा लोग भारतीय जवानों के बारे में क्यों नहीं सोच सकते? युवाओं के लिए ऐसे विषयों पर फिल्में जरूरी हैं। जब हम युवाओं को सिर्फ ज्ञान देंगे तो उनकी दिलचस्पी नहीं बनेगी, मनोरंजक तरीके से उन्हें वह बात बताना जरूरी है। इतिहास पढ़ना जरूरी है, हम यह भूलते जा रहे हैं।
इस सवाल के जवाब में जॉन अब्राहम बोले कि ‘मैंने सबसे पहले कहा कि आपका अखबार वर्षों से है और अच्छी खबरें प्रसारित करता है। वेदा में मेरा किरदार अभिमन्यु का है। आपको पता है कि महाभारत में अभिमन्यु का रोल क्या था? मैं बताना नहीं चाहूंगा, क्योंकि चाहता हूं कि आप फिल्म देखो। निर्देशक निखिल आडवाणी को इसके लिए शुक्रिया देना चाहूंगा’। जॉन अब्राहम ने कहा कि फिल्म अच्छी है तो चलेगी। कंट्रोवर्सी के बाद भी आपकी फिल्म चलेगी। उन्होंने लोगों से कहा कि व्हाट्सएप डिलीट कर दीजिए। मैं इस्तेमाल नहीं करता हूं। साधारण कपड़े पहनो। मैं हमेशा ट्रैक पैंट में रहता हूं। दूसरी बेटी का जन्म हुआ तो लोगों ने फिर कहना शुरू किया कि अरे पहली बेटी अपंग है और दूसरी भी बेटी है। इसके भी पांव लंगड़ाने लगे हैं।
धीरे-धीरे बेटियां बड़ी हुई। बड़ी बेटी छह साल की दूसरी बेटी तीन साल की और मेरे पति कारगिल में लड़ाई लड़ रहे थे तो मैं उस वक्त बेहद कठिन परिस्थिति में थी तो ऐसे मेरा सफर शुरू हुआ। बहुत मेहनत की और धारना बदलना शुरू किया और मुझे लगता है कि धारना को बदलने के लिए खेलों से बड़ा कोई माध्यम नहीं है। मैं खेल से उतरी तो मुझे इसी शरीर के लिए सराहा गया और इसी के लिए पीठ थपथपाया गया। जो मेरे करीब के लोग थे जो ये कहते थे कि जीवन बर्बाद हो गया तो मैं कहना चाहूंगी कि खेलों के माध्यम से कितना बदलाव आया, देख सकते हैं। जब मैं पदक लेकर लौटी तो मेरे गांव से लगभग 40 गाड़ियां मेरे स्वागत के लिए दिल्ली एयरपोर्ट आई थी। जो गांव के सरपंच थे, उन्होंने मुझे पगड़ी बांधी और मुझे गदा दिया।
मोटरसाइकिल से प्यार के चलते मेरी अरेंज मैरेज हुआ। मुझे ऐसे पति मिले, जिन्हें मोटरसाइकिल का बहुत शौक था। उन्होंने मुझे भी मोटरसाइकिल दी। बेटी हुई तो 14 महीने में जब उसने चलना सीखा तो उसे हेड इंजरी हुई और वही हुआ जो होना था। मैंने देखा कि 20 वर्ष गुजर गए थे मेरी बीमारी में और मेरी बेटी की बीमारी में, लेकिन मानसिकता नहीं बदली थी। मेरी बेटी की भी हेड इंजरी थी और लकवा था तो लोगों ने उसे भी कोसना शुरू कर दिया। लोगों ने कहा कि यह जीवन भर का बोझ रहेगी। मुझे तब समझ आया था कि मेरी मां क्यों रोती थी। क्योंकि उसने भी यही ताने सुने थे। मैंने अपनी बेटी के इलाज में उतनी ही तत्परता दिखाई, जितना मेरे मां बाप ने मुझे ठीक करने के लिए दिखाई थी।’