
देहरादून। उत्तराखंड को यूं ही वीरभूमि नहीं कहा जाता। 1971 के भारत–पाक युद्ध में राज्य के सैकड़ों जांबाज सैनिकों ने अपने अदम्य साहस, रणनीतिक कुशलता और राष्ट्रप्रेम से ऐसा इतिहास रचा, जिसे आज भी गर्व और सम्मान के साथ याद किया जाता है। 16 दिसंबर का दिन भारत की ऐतिहासिक विजय और पाकिस्तान की पराजय का प्रतीक है, जब पाकिस्तान की पूर्वी कमान ने ढाका में आत्मसमर्पण किया था।
मूल रूप से लैंसडाउन के निवासी और वर्तमान में नवादा में रह रहे शौर्य चक्र विजेता लेफ्टिनेंट कर्नल राकेश चंद्र कुकरेती बताते हैं कि आज ही के दिन 16 दिसंबर 1971 को उनकी छह राजपूताना रेजिमेंट के सामने पाकिस्तान की 22 बलूच रेजिमेंट ने हथियार डाल दिए थे। वह बताते हैं कि रेजिमेंट ज्वाइन करने के कुछ समय बाद ही उनकी तैनाती धर्मनगर से बांग्लादेश के सिलहट क्षेत्र में हुई थी, जहां भीषण संघर्ष के बीच भारतीय सेना ने निर्णायक बढ़त हासिल की।
लेफ्टिनेंट कर्नल कुकरेती के लिए यह युद्ध केवल एक सैन्य अभियान नहीं, बल्कि पूरे परिवार की राष्ट्रसेवा का प्रतीक था। उनके चार भाई—मेजर जनरल प्रेम लाल कुकरेती, मेजर धर्मपाल कुकरेती, मेजर जगदीश कुकरेती और नायब सूबेदार सोहन लाल कुकरेती—भी इसी युद्ध में देश की रक्षा के लिए मोर्चे पर डटे रहे। यह उदाहरण उत्तराखंड के सैन्य परंपरा और पारिवारिक राष्ट्रभक्ति को दर्शाता है।
वहीं, 97 वर्षीय मेजर नारायण सिंह पिलखवाल, जो मूल रूप से हवालबाग अल्मोड़ा के निवासी हैं और वर्तमान में सेलाकुई में रहते हैं, बताते हैं कि 1971 के युद्ध के दौरान वह 251 पैरा मेडिकल कंपनी में तैनात थे। उनके अनुसार, केवल 13 दिनों तक चले इस युद्ध में भारतीय सेना ने असाधारण सफलता हासिल की और 16 दिसंबर को पाकिस्तान की पूर्वी कमान ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस दौरान 90 हजार से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया, जिसे विश्व इतिहास की सबसे बड़ी सैन्य पराजयों में गिना जाता है।
इन वीर सैनिकों की देशभक्ति यहीं तक सीमित नहीं रही। 1971 के युद्ध में भाग लेने वाले कई जांबाजों ने अपने बेटों को भी सेना में भेजकर राष्ट्रसेवा की परंपरा को आगे बढ़ाया। लेफ्टिनेंट कर्नल राकेश चंद्र कुकरेती के दोनों जुड़वां बेटे—कार्तिकेय और अर्थ कुकरेती—आज भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर तैनात हैं। वहीं, मेजर नारायण सिंह पिलखवाल के पुत्र भगवंत सिंह पिलखवाल सेना से कर्नल के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं।
1971 के युद्ध में उत्तराखंड के कुल 248 वीर सैनिकों ने देश की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान दिया था। इनमें अल्मोड़ा के 23, बागेश्वर के 24, चंपावत के आठ, चमोली के 31, देहरादून के 42, लैंसडाउन के 17, नैनीताल के 11, पौड़ी के 16, पिथौरागढ़ के 48, रुद्रप्रयाग का एक, टिहरी के नौ, ऊधमसिंह नगर के छह और उत्तरकाशी का एक जवान शामिल था।
विजय दिवस पर उत्तराखंड के इन वीर सपूतों की गाथाएं न केवल इतिहास का गौरवशाली अध्याय हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी हैं, जो देश के लिए समर्पण, साहस और बलिदान का सच्चा अर्थ सिखाती हैं।




