
सुबह-सुबह हँसते-खिलखिलाते बच्चों से भरी स्कूल वैन अचानक खामोश हो जाती है। टिफिन में रखी रोटी-सब्जी सड़क पर बिखर जाती है। खून से लथपथ बच्चे एक ही सवाल पूछते हैं — “मैम कहां हैं?” ये दृश्य केवल दृश्य नहीं, बल्कि हमारे पूरे सिस्टम पर एक करारा तमाचा है।
1. लापरवाह यातायात और व्यवस्था की अनदेखी
सवाल ये है कि क्या स्कूली वाहनों की सुरक्षा जांच हो रही है? क्या वैन चालकों के पास लाइसेंस है, क्या वे प्रशिक्षित हैं? क्या सड़क पर तेज रफ्तार से दौड़ती पिकअप की कोई निगरानी थी? जब दुर्घटनाएं होती हैं, तब प्रशासन मौके पर दौड़ता है, लेकिन उसके पहले कहाँ थे जिम्मेदार?
2. निजी स्कूल और बच्चों की ज़िम्मेदारी
इंटरनेशनल पब्लिक स्कूल जैसे नामधारी संस्थान क्या सिर्फ फीस वसूलने में सक्रिय हैं? क्या उनके पास कोई आपदा प्रबंधन योजना थी? क्या वैन की दशा और चालक की जिम्मेदारी स्कूल की नहीं थी?
3. प्रशासनिक मौन और घिसी-पिटी प्रतिक्रियाएं
हर हादसे के बाद अधिकारी आते हैं, प्रेस नोट जारी होता है, कुछ बयान दिए जाते हैं – “जांच की जा रही है”, “दोषी नहीं बख्शे जाएंगे”। लेकिन इन बयानों से न अनाया जैसी बच्ची लौटेगी, न निशा जैसी शिक्षिका।
4. मीडिया की भूमिका
घटनास्थल की दिल दहला देने वाली तस्वीरें एक चेतावनी हैं, पर क्या यही तस्वीरें बार-बार देखकर हम सिर्फ संवेदनहीन हो रहे हैं? क्या मीडिया का काम सिर्फ खून और आंसू दिखाना है या समाधान की ओर ध्यान खींचना भी?
समाधान क्या हो सकता है?
- स्कूल वाहनों के लिए सख्त नियम – फिटनेस, चालक प्रशिक्षण, स्पीड गवर्नर और GPS अनिवार्य हो।
- पेरेंट्स एसोसिएशन का गठन – जो नियमित रूप से बच्चों के ट्रांसपोर्ट की समीक्षा करे।
- स्थानीय पुलिस द्वारा स्कूल टाइम पेट्रोलिंग – मुख्य मार्गों पर तेज रफ्तार वाहनों की निगरानी।
- सड़क पर सीसीटीवी और सख्त चालान – जिससे रफ्तार पर नियंत्रण और जवाबदेही तय हो।
अनाया अब कभी स्कूल नहीं जाएगी। निशा अब किसी बच्चे को “गुड मॉर्निंग” नहीं कहेंगी। लेकिन क्या बाकी बच्चों के भविष्य के लिए हम अभी भी कुछ नहीं करेंगे? समाज और सरकार दोनों को यह सोचने की ज़रूरत है कि अगर आज हमने सुध नहीं ली, तो कल यह दुर्घटना किसी और के घर की अनाया को निगल जाएगी।
“मौन रहना अब अपराध है, और माफ़ करना कायरता। समय है कि हम जागें – बच्चों की सुरक्षा कोई ‘विकल्प’ नहीं, यह ‘जरूरत’ है।”