
नैनीताल। दिव्यांग युवती के साथ हुए घिनौने दुष्कर्म से जन्मी अबोध बच्ची को आखिरकार वह पहचान मिल गई है, जिसके लिए उसका परिवार एक वर्ष से लड़ाई लड़ रहा था। न्यायालय की सजा, प्रशासन की तत्परता और मीडिया की लगातार आवाज़ ने मिलकर उस मासूम के जीवन में नया उजाला भर दिया है—अब उसे जन्म प्रमाणपत्र, आधार कार्ड और कानूनी रूप से माता-पिता का दर्जा मिल चुका है।
यह मामला तब सामने आया था जब 95 प्रतिशत दिव्यांग युवती के साथ दुष्कर्म कर उसके साथ अन्याय करने वाले आरोपी को 1 नवंबर को जिला जज हरीश कुमार गोयल की अदालत ने सजा सुनाई। लेकिन सजा के बावजूद दुष्कर्म से जन्मी बच्ची पहचान और अधिकारों के अभाव में संघर्ष कर रही थी। प्रशासनिक स्तर पर किसी के ध्यान न देने के कारण बच्ची जन्म के बाद भी ‘अदृश्य नागरिक’ जैसी स्थिति में थी।
मामले की गंभीरता को उजागर करती रिपोर्ट प्रकाशित होने के तुरंत बाद जिलाधिकारी ललित मोहन रयाल ने इसे संज्ञान में लिया और मातहत अधिकारियों को त्वरित कार्रवाई के निर्देश दिए। आदेश के 24 घंटे के भीतर बच्ची को उसका जन्म प्रमाणपत्र जारी कर दिया गया, जो उसके सभी वैधानिक अधिकारों की पहली सीढ़ी था।
इसके बाद पालनहार यशोदा मां—यानी बच्ची की मामी—और मामा को कानूनी रूप से बच्ची के माता-पिता का अधिकार दिलाने की प्रक्रिया शुरू हुई। कागजी औपचारिकताओं और गोदनामे की प्रक्रिया पूरी होते ही मामी और मामा को माता-पिता का दर्जा प्रदान किया गया।
बृहस्पतिवार को ई-डिस्ट्रिक्ट मैनेजर स्वयं पीड़ित परिवार के घर पहुँचे और बच्ची का आधार कार्ड बनाकर उसे देश का वैध नागरिक होने की पहचान दिलवा दी। इसके साथ ही बच्ची के भविष्य को लेकर परिवार की सबसे बड़ी चिंता दूर हो गई।
जिला सरकारी अधिवक्ता सुशील शर्मा ने कहा कि पीड़ित परिवार को उनके अधिकार दिलवाना पत्रकारिता के मूल उद्देश्य का जीवंत उदाहरण है। परिवार का कहना है कि वे इस लड़ाई में लंबे समय से प्रशासनिक दफ्तरों के चक्कर लगा रहे थे, लेकिन भावनाओं को छूने वाली खबर प्रकाशित होने के बाद कुछ ही दिनों में बच्चों को वह सब मिल गया, जिसका वे एक वर्ष से इंतजार कर रहे थे।
बच्ची का आधार कार्ड बनने के बाद पता चला कि यह कार्य करने के लिए परिवार से 700 रुपये वसूले गए थे। मामले की जानकारी मिलने पर अमर उजाला ने समाज कल्याण अधिकारी से संपर्क किया। जांच में बताया गया कि घर पर आधार कार्ड बनाने के लिए यह शुल्क ‘नियमों के तहत’ लिया गया था, लेकिन जब स्पष्ट हुआ कि यह प्रक्रिया डीएम के विशेष आदेश के अंतर्गत की जा रही है, तो पूरी राशि परिवार को वापस दिलवा दी गई।
इस पूरे प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित किया है कि प्रशासनिक इच्छाशक्ति, न्यायपालिका की तत्परता और जिम्मेदार पत्रकारिता मिलकर किसी भी पीड़ित की जिंदगी में बड़ा बदलाव ला सकती हैं। यह बच्ची अब सिर्फ दुष्कर्म की उपज के रूप में नहीं, बल्कि एक पहचानी हुई, अधिकारयुक्त नागरिक के रूप में अपना भविष्य संवार सकेगी।




