
टिहरी जिले की नदियां और गदेरे जलवायु परिवर्तन के दबाव में अपना स्वरूप बदल रहे हैं। मानसून में लगातार हो रही तेज वर्षा और उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियरों के खिसकने से नदियों का पुराना प्रवाह मार्ग फिर सक्रिय हो रहा है। भिलंगना, बालगंगा, धर्म गंगा, जलकुर, हेवल और अगलाड़ जैसी नदियां दशकों बाद उसी पुराने रास्ते पर लौट रही हैं, जिससे उनके किनारे बसे गांव और कस्बे खतरे में आ गए हैं। पानी का वेग इतना तेज है कि यह न केवल खेत-खलिहानों और सड़क मार्गों को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि बस्तियों के अस्तित्व पर भी संकट गहरा रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि इसका बड़ा कारण अनियोजित विकास है। नदियों के तटों पर अनियंत्रित बसावट, सड़कों का निर्माण और किनारों पर लगातार मलबा डालने जैसी मानवीय गतिविधियों ने जलधाराओं की स्वाभाविक दिशा बदल दी है। जब बारिश होती है तो नदियों में भारी मात्रा में गाद भर जाता है, जिससे जलस्तर अचानक बढ़कर बाढ़ जैसी स्थिति बना देता है। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एस.पी. सती मानते हैं कि नदियों का इस तरह पुराने प्रवाह मार्ग की तरफ लौटना भविष्य में और बड़े नुकसान का संकेत है।
दरअसल, जलवायु परिवर्तन के असर से पहाड़ों पर ग्लेशियर तेजी से पीछे हट रहे हैं। इस खिसकन से जहां नए स्रोत बन रहे हैं, वहीं पुराने मार्गों पर पानी का दबाव अचानक बढ़ रहा है। इन नदियों से जुड़े गाड़-गदेरे भी अपना रुख बदल रहे हैं, जिससे बरसात में उनका बहाव कई गुना बढ़ जाता है। ग्रामीणों के अनुसार, पहले जिन धाराओं में मामूली पानी बहता था, अब वे उफान पर आने लगी हैं। खेतों में जमा मलबा खेती को बर्बाद कर रहा है, जबकि सड़कों के टूटने से आवाजाही भी बाधित हो रही है।
स्थानीय लोग आशंका जता रहे हैं कि यदि यही हाल रहा तो आने वाले वर्षों में कई गांव विस्थापन की स्थिति में पहुंच सकते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अब समय आ गया है जब नदियों और ग्लेशियरों के इस बदलते स्वरूप को ध्यान में रखते हुए विकास की नई योजना बनाई जाए। अनियंत्रित निर्माण, मलबा फेंकने और नदी तटों पर बस्तियां बसाने की प्रवृत्ति पर रोक नहीं लगी तो भविष्य में यह आपदा का रूप ले सकता है।
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