
देहरादून। उत्तराखंड में भी पूरे देश के साथ 24 अक्टूबर को दिवाली का पर्व मनाया जाएगा। लेकिन यहां के कई क्षेत्रों में अनोखे तरीकों से दीपावली मनाई जाती है। गढ़वाल से कुमाऊं तक दीपावली मनाने का कुछ अलग ही अंदाज है। उत्तराखंड के कई इलाके ऐसे हैं, जहां कहीं 11 दिन बाद तो कहीं एक माह बाद दीपावली मनाई जाती है।
जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र है। जहां कई गांवों में दीपावली मनाने के ठीक एक महीने बाद पहाड़ी बूढ़ी दीपावली मनाई जाएगी। यहां प्रदूषण मुक्त परंपरागत तरीके से दिवाली मनाई जाता है। बूढ़ी दीवाली में भीमल की लकड़ी से मशाल बनाई जाती है। जिसे जलाकर नृत्य किया जाता है। यह दीपावली मनाने का रिवाज पौराणिक काल से है। यहां पर पटाखे, आतिशबाजी का चलन नहीं है।
रात को सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल-दमाऊ रणसिंगे की थाप पर पंचायती आंगन में लोक नृत्य कर खुशियां मनाते हैं। टिहरी में कार्तिक की दीपावली के ठीक एक महीने बाद जिले में कई जगहों पर मंगशीर की दीपावली मनाई जाती है। वहीं कई जगहों पर कार्तिक दीपावली के 11 दिन बाद इगाश दीपावली मनाई जाती है।
मंगशीर की दीपावली में स्थानीय फसलों के व्यंजन बनाए जाते है। गांव से बाहर रहने वाले लोग भी इस दीपावली को मनाने गांव पहुंचते हैं। ग्रामीण खुशी जताते हुए लकड़ी जलाकर रोशनी करते हैं। इस दिनस्थानीय फसलों के पकवान तैयार किए जाते हैं। उत्तरकाशी में कार्तिक अमावस्या से ठीक एक माह बाद दीपावली यानी मंगशीर की बग्वाल का उत्सव होता है। मंगशीर की बग्वाल गढ़वाली सेना की तिब्बत विजय का उत्सव है।
भटवाड़ी ब्लॉक के बगोरी गांव और डुंडा ब्लॉक के वीरपुर में दशहरा से पहली रात को जाड़-भोटिया समुदाय के लोग पकवान बनाते हैं तथा मशाल जुलूस निकालते हैं। जिससे वे दीपावली पर्व कहते हैं। ये लोग प्रत्येक वर्ष माघ माह की अमावस्या को दीपावली का पर्व मनाते हैं। जिसमें चीड़ के छिलकों को लाकर मशाल जलाया जाता है। क्षेत्र के खुशहाली के साथ ही सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है।
कुमाऊं में शरद पूर्णिमा से दीपों को पर्व की शुरुआत हो जाती है। इस दिन से आकाश दीप जलाया जाता जो एक माह तक लगातार प्रज्ज्वलित किया जाता है। धनतेरस के दिन ऐपण बनाकर घर की सजावट की जाती है। महालक्ष्मी पूजन यानी बड़ी दिवाली की सुबह घर की बहुएं व बेटियां गन्ने के तीन तनों से मां लक्ष्मी की प्रतिमा बनाती हैं। देर सायं शुभ मुहूर्त पर पूजन कर प्रसाद बांटा जाता है। इस दिन केले, दही व घी के मिश्रण से मालपुवे व पुवे बनाए जाते हैं। इसके बाद ही आतिशबाजी का दौर चलता है।